भावार्थ :- हठयोग विद्या का उपदेश करने वाले आदिनाथ ( नाथ सम्प्रदाय के जनक ) को प्रणाम करते हैं । जिन्होंने सभी योग साधनाओं में सबसे श्रेष्ठ अर्थात राजयोग साधना को प्राप्त करने के लिए सीढ़ी के समान इस हठयोग विद्या का वर्णन किया है ।
भावार्थ :- योगी स्वात्माराम गुरुओं के गुरु श्री आदिनाथ अर्थात भगवान शिव को प्रणाम करते हुए बताते हैं कि हठयोग विद्या का उपदेश केवल राजयोग को प्राप्त करने के लिए किया गया है । अन्य किसी कार्य हेतु नहीं ।
भावार्थ :- जो योग साधक अनेक प्रकार की भ्रान्ति व अंधकार में पड़कर राजयोग को नहीं जान पाते । उन सभी साधकों के ऊपर स्वामी स्वात्माराम अपनी कृपा दृष्टि रखते हुए उन्हें हठप्रदीपिका रूपी दीपक के माध्यम से उनका मार्ग प्रशस्त करने का काम कर रहे हैं ।
भावार्थ :- इस हठयोग विद्या को मत्स्येंद्रनाथ और गोरक्षनाथ आदि योगी अच्छी प्रकार से जानते हैं । या फिर उनके आशीर्वाद से इस हठयोग विद्या को स्वामी स्वात्माराम जानते हैं ।
भावार्थ :- श्री आदिनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, शाबर, आनंदभैरव, चौरङ्गी, मीन, गोरक्ष, विरुपाक्ष, विलेशय ।
भावार्थ :- मन्थान, भैरव योगी, सिद्धि, बुद्ध, कन्थडि, कोरण्टक, सुरानन्द, सिद्धिपाद व चर्पटि ।
भावार्थ :- कानेरी, पूज्यपाद, नित्यनाथ, निरञ्जन, कपाली, बिन्दुनाथ व काकचण्डीश्वर नाम के ।
भावार्थ :- अल्लाम, प्रभुदेव, घोड़ाचोली, व टिण्टिणि, भानुकी, नारदेव, खण्ड तथा कापालिक ।
भावार्थ :- इत्यादि ( ऊपर वर्णित ) महासिद्ध योगी हठयोग विद्या के प्रभाव से मृत्यु रूपी कालचक्र के भय को नष्ट करके मुक्त रूप से ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं । अर्थात ऊपर वर्णित सभी योगियों ने हठयोग साधना से मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अपने आप को जीवन- मरण के बन्धन से मुक्त कर चुके हैं । इसलिए वह इस पूरे ब्रह्माण्ड में मुक्त रूप से कही भी घूमते रहते हैं ।
भावार्थ :- जो व्यक्ति दुखों से अनन्त रूप से दुःखी हैं । उनके लिए यह हठयोग विद्या सुख रूपी आश्रय अर्थात घर की तरह है और जो योग साधक अनेक प्रकार की योग साधनाओं में लगे हुए हैं । उनके लिए यह हठयोग साधना आधारभूत कछुए के समान है । जिस प्रकार समुद्र मन्थन के दौरान कछुए को आधार बनाया गया था । ठीक उसी प्रकार यह हठयोग साधना भी अन्य सभी साधनाओं का आधार है ।
भावार्थ :- योग साधना में सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले योगियों के लिए हठयोग विद्या पूरी तरह से गोपनीय ( छुपा कर रखने योग्य ) है । गुप्त रखी हुई हठयोग विद्या ही साधक को बल अथवा शक्ति प्रदान करती है और सभी को इसके बारे में बताने से यह निष्क्रिय अर्थात शक्तिहीन हो जाती है ।
विशेष :- यहाँ पर इस योग विद्या को गुप्त अथवा छुपा कर रखने की बात का अर्थ यह है कि किसी अयोग्य व्यक्ति को इसका ज्ञान न हो जाए । जब कोई अयोग्य या दुष्ट व्यक्ति को किसी शक्ति का ज्ञान हो जाता है । तब इस बात का खतरा रहता है कि कहीं वह इसका गलत प्रयोग न करदे । शक्ति तो शक्ति होती है । योग्य व सही व्यक्ति उसका प्रयोग सही कार्यों के लिए करता है । और अयोग्य या दुष्ट व्यक्ति उसका प्रयोग गलत कार्यों के लिए करता है । किसी अयोग्य या दुष्ट व्यक्ति को इसका ज्ञान न हो जाए । इसलिए इस योग विद्या को गुप्त रखने व योग्य व्यक्ति को ही इसका ज्ञान देने की बात कही गई है । इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि इस विद्या को पूर्ण रूप से गुप्त रखना है । ऐसे तो यह ज्ञान विलुप्त ही हो जाएगा ।
भावार्थ :- इस श्लोक में योगी के लिए उपयुक्त स्थान का वर्णन करते हुए कहा है कि योगी साधक को ऐसे स्थान पर योगाभ्यास करना चाहिए जहाँ पर न्याय प्रिय राजा का शासन हो, जिस देश में धार्मिक गतिविधियाँ होती हों, जहाँ पर भिक्षा आसानी से मिल जाए, जो स्थान सभी प्रकार के उपद्रवों ( जहाँ पर किसी तरह की अराजक घटनाएँ न घटती हों ) से रहित हो । योगी को ऐसे देश में एक छोटी कुटिया बनाकर रहना चाहिए । उस कुटिया के चारों ओर धनुष की लम्बाई व चौड़ाई जितनी दूर तक किसी भी प्रकार का कंकड़- पत्थर, अग्नि व जल का स्त्रोत नहीं होना चाहिए ।
भावार्थ :- योगी की कुटिया का द्वार ( दरवाजा ) छोटा हो, उसमें किसी तरह का बिल और गड्डा न हो, उस स्थान पर भूमि ऊँची- नीची नहीं होनी चाहिए अर्थात समतल हो, न ही ज्यादा बड़ी हो, गोबर से अच्छी प्रकार से लिपी हो, पूरी तरह से साफ हो, सभी प्रकार के जीव- जन्तुओं से रहित हो, कुटिया के बाहर एक मण्डप अर्थात चबूतरा व कुआँ हो, चारों ओर से दीवार से घिरी हो, यह सिद्ध योगियों के आवास अर्थात उनकी कुटिया के लक्षण बताये गए हैं ।
भावार्थ :- योगी को ऊपर वर्णित कुटिया में रहकर सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त होकर सदा अपने गुरु द्वारा बताए गए योगमार्ग का अच्छी प्रकार से अभ्यास करना चाहिए ।
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